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उस निगाह-ए-नाज़ ने यूँ रात-भर तज्सीम की - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

उस निगाह-ए-नाज़ ने यूँ रात-भर तज्सीम की

उस निगाह-ए-नाज़ ने यूँ रात-भर तज्सीम की

सब चराग़ों में बराबर रौशनी तक़्सीम की

रात पीछे पड़ गई थी ख़ौफ़ के साए लिए

ख़्वाब से आगे निकल कर वक़्त में तरमीम की

आइना हो जाएगा ये दश्त मुझ पर एक दिन

गिर्हें खुलती जा रही हैं अहसन-ए-तक़्वीम की

दोनों ही आ कर अलिफ़ की रौशनी में ज़म हुईं

इक तजल्ली लाम की और इक तजल्ली मीम की

शहद का भी ज़िक्र हो सकता था होने को मगर

उस के लहजे के मुताबिक़ बात छेड़ी नीम की

मैं ही था अपने मुक़ाबिल ख़्वाहिशों की डोर में

हारना मुश्किल लगा सो जीत ही तस्लीम की

दोस्त लेकिन तुझ को ये इज़्ज़त न रास आई कभी

मैं ने अपने आप से बढ़ कर तिरी तकरीम की

शाम होते ही चराग़ों को सजाया ताक़ में

सारा दिन सो कर गुज़ारा रात की ताज़ीम की

उम्र-भर सूरज के आगे हाथ फैलाए मगर

इक सितारे ने मुझे ये रौशनी ता'लीम की

खींच कर अफ़्लाक पे इक सुरमई रौशन लकीर

चाँद ने सूरत बदल डाली हमारी थीम की

मैं ने 'ज़ेब' उस को मोहब्बत में कहा था मुझ से मिल

उस ने मेरी बात की कितनी ग़लत तफ़्हीम की

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