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पूछते हैं तुझ को सफ़्फ़ाकी कहाँ रह कर मिली - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

पूछते हैं तुझ को सफ़्फ़ाकी कहाँ रह कर मिली

पूछते हैं तुझ को सफ़्फ़ाकी कहाँ रह कर मिली

ये करामत भेड़ियों के दरमियाँ रह कर मिली

हादसों की ज़द में रहते हैं ज़मीन-ओ-आसमाँ

कौन सी अच्छी ख़बर मुझ को यहाँ रह कर मिली

हर-नफ़स मुझ को अज़िय्यत का सफ़र करना पड़ा

ज़िंदगी मुझ से हमेशा बद-गुमाँ रह कर मिली

इक तिलावत ने मिरी साँसों को बख़्शा है दवाम

ज़िंदगी मुझ को सर-ए-नोक-ए-सिनाँ रह कर मिली

या'नी तेरे सब सितम मुझ पर करम साबित हुए

या'नी तेरी हर बला ही मेहरबाँ रह कर मिली

ज़हर इक मिक़दार में उस ने दिया है इस लिए

तक़्वियत मुझ को हमेशा नीम-जाँ रह कर मिली

मैं उसी का मरकज़ी किरदार हूँ क्या इल्म था

वो कहानी जो दरून-ए-दास्ताँ रह कर मिली

जो भी कहते हो उतर जाता है मेरे दिल में 'ज़ेब'

ऐसी लफ्फ़ाज़ी बताओ तो कहाँ रह कर मली

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