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ख़ुश बहुत आते हैं मुझ को रास्ते दुश्वार से - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

ख़ुश बहुत आते हैं मुझ को रास्ते दुश्वार से

ख़ुश बहुत आते हैं मुझ को रास्ते दुश्वार से

सर-फिरा हूँ मैं नहीं डरता किसी दीवार से

मंज़िलों को पल में पीछे छोड़ता जाता हूँ मैं

रास्ते भी ख़ौफ़ खाते हैं मिरी रफ़्तार से

ख़ामुशी से सूरतें मिट जाएँगी मंज़र से क्या

कुछ नहीं कहना किसी को आइना-बरदार से

ख़ुश्क आँखों से मैं तकता हूँ किनारे की तरफ़

मुझ को सैराबी बुलाती है समुंदर पार से

क्या मिरा घर भी नहीं हक़ में कि मैं तन्हा रहूँ

इतनी वहशत हो रही है क्यूँ दर-ओ-दीवार से

आसमानों पर पड़ाव डालना तो है मुझे

गुफ़्तुगू होती रहेगी साबित-ओ-सय्यार से

तुम भी अब कुछ और सोचो इस मोहब्बत के सिवा

मैं भी अब उकता गया हूँ एक ही आज़ार से

मैं शरीफ़ों से शराफ़त में भी आगे ही रहा

मैं ने चालाकी भी सीखी पाए के अय्यार से

रात-भर इस शहर में वो सानेहे होते हैं 'ज़ेब'

दिल दहल उठता है मेरा सुब्ह के अख़बार से

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