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अश्क को दरिया बनाया आँख को साहिल किया - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

अश्क को दरिया बनाया आँख को साहिल किया

अश्क को दरिया बनाया आँख को साहिल किया

मैं ने मुश्किल वक़्त को कुछ और भी मुश्किल किया

एक मायूसी ही दिल में कब तलक रहती मिरे

मैं ने मायूसी में दिल का ख़ौफ़ भी शामिल किया

नींद की इमदाद जैसे ही बहम पहुँची मुझे

आँख के मक़्तल में अपने ख़्वाब को दाख़िल किया

वर्ना तेरा छोड़ जाना जान ले जाता मिरी

कर्ब में आँसू मिला कर दर्द को ज़ाइल किया

जैसे दुनिया देखती है वैसे कब तक देखते

दीदा-ए-बीना से देखें ख़ुद को इस क़ाबिल किया

एक चेहरा और दो आँखें ले गए बाज़ार में

गिरवी रख के उन को फिर इक आइना हासिल किया

वर्ना वो कब बात सुनता था किसी की बज़्म में

मैं ने अपने शेर से उस शख़्स को क़ाइल किया

बे-नियाज़ी से गुज़ारे उम्र के बत्तीस साल

खो दिया कब जाने तुझ को कब तुझे हासिल किया

रात-दिन उल्टा लटक कर ज़ात के कूएँ में 'ज़ेब'

सोच की ना-पुख़्तगी को मश्क़ से कामिल किया

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