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अब कोई और मुसीबत तो न पाली जाए - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

अब कोई और मुसीबत तो न पाली जाए

अब कोई और मुसीबत तो न पाली जाए

उस की यादों से भी अब जान छुड़ा ली जाए

वो भी मेरे लिए कुछ सोचता है सोचता हूँ

कैसे दिल से मिरे ये ख़ाम-ख़याली जाए

ज़ीस्त बे-रब्त है पर है तो ख़ुदा की ने'मत

जिस तरह से भी ये निभती है निभा ली जाए

ऐसे भी दोस्त हैं कुछ जिन का यही मक़्सद है

वार क्या उन की कोई बात न ख़ाली जाए

याद जिस की हमें सोने नहीं देती अक्सर

उस सितमगर की भी अब नींद चुरा ली जाए

उस के दर से मैं यही सोच के लौट आया हूँ

'ज़ेब' अब के भी न दस्तक मिरी ख़ाली जाए

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