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आज शब-ए-मेराज होगी इस लिए तज़ईन है - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

आज शब-ए-मेराज होगी इस लिए तज़ईन है

आज शब-ए-मेराज होगी इस लिए तज़ईन है

वो क़दम उठ्ठे हैं जिन को आसमाँ क़ालीन है

माँ ने पढ़ कर फूँक दी थी मुझ पे बचपन में कभी

मेरे दिल पर नक़्श अब तक सूरा-ए-यासीन है

अश्क के बोसे की लज़्ज़त क्या बताऊँ मैं तुम्हें

क्या बताऊँ मैं तुम्हें ये किस क़दर नमकीन है

उस को दरवेशी समझने वालों पर हैरान हूँ

हाथ में कासा उठाना इश्क़ में तौहीन है

इल्म की ख़्वाहिश तुम्हें मंज़िल तलक ले जाएगी

जाने वाले तो बनो अगले क़दम पर चीन हे

और भी यारों से कहना वक़्त पे सब आ मिलें

मेरे घर के सहन में इक ख़्वाब की तदफ़ीन है

सोचना इस बाब में बेकार जाएगा तिरा

ये मोहब्बत है मियाँ उस का अलग आईन है

उस के लब पर इक दुआ है सिर्फ़ मेरी मौत की

मेरे लब पर कुछ नहीं कुछ भी नहीं आमीन है

अब मोहब्बत की तरफ़ मैं लौटने वाला नहीं

दिल ये तू ने ठीक समझा ऐसा ही कुछ सीन है

उड़ रहा है 'ज़ेब' की तहरीर के आहंग में

ये परिंदा हज़रत-ए-इक़बाल का शाहीन है

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