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आ कर उरूज कैसे गिरा है ज़वाल पर - औरंगज़ेब कविता - Darsaal

आ कर उरूज कैसे गिरा है ज़वाल पर

आ कर उरूज कैसे गिरा है ज़वाल पर

हैरान हो रहा हूँ सितारों की चाल पर

इक अश्क भी ढलक के दिखाए अब आँख से

मैं सब्र कर चुका हूँ तुम्हारे ख़याल पर

आ आ के उस में मछलियाँ होती रहीं फ़रार

हँसती है जल-परी भी मछेरों के जाल पर

मायूस हो के देखना क्या आसमान को

उड़ने का शौक़ है तो मिरी जाँ निकाल पर

मैं तंग आ चुका हूँ कि समझाऊँ किस तरह

इक रोज़ छोड़ दूँगा तुझे तेरे हाल पर

कुछ याद है कि मैं ने बनाए थे तेरे नक़्श

फिर इतना नाज़ क्यूँ है तुझे ख़द्द-ओ-ख़ाल पर

मिस्ल-ए-गुलाब आप जो महके हैं बाग़ में

बोसा वसूल कीजिए तितली का गाल पर

तफ़रीक़ किस तरह से करोगे यहाँ पे 'ज़ेब'

इंसाँ लिखा हुआ है दरिंदों की खाल पर

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