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न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है - औलाद अली रिज़वी कविता - Darsaal

न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है

न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है

भला हो दिल का बहुत बे-क़रार गुज़री है

हज़ार मस्लिहतें जिस में कार-फ़रमा हों

वो इक निगाह-ए-करम हम पे बार गुज़री है

है इस्तिलाह-ए-मोहब्बत में जिस का नाम जुनूँ

वो एक रस्म बड़ी पाएदार गुज़री है

ज़रूर उस ने तिरे पैरहन को चूमा था

जो इस तरफ़ से सबा मुश्क-बार गुज़री है

वो बाग़बाँ भी कोई बाग़बाँ है जिस की हयात

रहीन-मिन्नत-ए-फ़स्ल-ए-बहार गुज़री हे

लुटा है कौन ग़रीब-उद-दयार रस्ते में

ये किस के ग़म में सबा सोगवार गुज़री है

निसार उस पे हूँ मैं जिस की ज़िंदगी 'साक़ी'

बशर के औज की आईना-दार गुज़री है

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