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निगाह कोई तो तूफ़ाँ में मेहरबान सी है - अतुल अजनबी कविता - Darsaal

निगाह कोई तो तूफ़ाँ में मेहरबान सी है

निगाह कोई तो तूफ़ाँ में मेहरबान सी है

हर एक मौज समुंदर की पाएदान सी है

हर एक शख़्स को गाहक समझ के ख़ुश रखना

ये ज़िंदगी भी हमारी कोई दुकान सी है

मैं आसमाँ की तरह मुद्दतों से ठहरा हूँ

बदन में फिर भी ज़मीं जैसी कुछ थकान सी है

दुखों का क्या है ये आते हैं तीर की मानिंद

ख़ुशी हमेशा मिरे वास्ते कमान सी है

क़दम सँभाल के रखना हसीन राहों पर

फिसल गए तो फिर आगे बड़ी ढलान सी है

ज़बान मुँह में हमारे थी जब ग़ुलाम थे हम

हमारे मुँह में मगर अब तो बस ज़बान सी है

अब आए दिन ही निकलता है आँसुओं का जुलूस

हमारी आँख मुसलसल लहूलुहान सी है

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