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इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है - अतुल अजनबी कविता - Darsaal

इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है

इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है

वक़्त के साथ कमी प्यार में आ जाती है

बस कहीं छोर समुंदर का नज़र आ जाए

कोई ताक़त मिरी पतवार में आ जाती है

वो गुज़रता है तो खुलते हैं दरीचे घर के

इक चमक सी दर-ओ-दीवार में आ जाती है

टूटे घुंघरू की जो आवाज़ हुआ करती है

वो खनक क्यूँ मिरी गुफ़्तार में आ जाती है

जब भी आता है मिरा नाम तिरे होंटों पर

ख़ुश्बू-ए-गुल मिरे अशआर में आ जाती है

हर घड़ी अपनी तमन्नाओं से लड़ते लड़ते

इक चमक चेहरा-ए-ख़ुद्दार में आ जाती है

जब ग़ज़ल 'मीर' की पढ़ता है पड़ोसी मेरा

इक नमी सी मिरी दीवार में आ जाती है

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