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मैं कि तुम पे बाज़ हूँ - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

मैं कि तुम पे बाज़ हूँ

जहाँ कहीं से तुम ने अपने फ़ासले उठा लिए

वहीं से मेरी इब्तिदा हुई

सैकड़ों नहीफ़ और नज़ार हाथ

आसमान की तरफ़ उठे

और एक साथ उठ के मेरे चारों सम्त

कई सफ़ों में तन गए

मैं तुम्हारे वास्ते

तुम्हारे नाम से

एक ऐसे बाब के दहाने पर खड़ा हूँ

जो हज़ारों सम्तों को रुजूअ है

मैं कि तुम पे बाज़ हूँ

ख़ुदाई की सब ख़ुदाई तुम पे बाज़ है

तुम मिरी तरफ़ झुकी रहो

झुकी रहो

कि इस के बाद मेरे और तुम्हारे जिस्म की

बा-मुराद शिरकतों से एक तंदरुस्त शहर की उमीद है

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