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वो जो सर्फ़-ए-निगाह करता है - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

वो जो सर्फ़-ए-निगाह करता है

वो जो सर्फ़-ए-निगाह करता है

इस तमाशे का एक हिस्सा है

इक अंधेरा हूँ सर से पाँव तक

फिर ये पहलू में किया चमकता है

एक दिन उन को ज़िंदा देखा था

जन बुज़ुर्गों का ये असासा है

शहर-ए-मातम की इस बला से न डर

आईना भी तिलिस्म रखता है

किस के पैरों के नक़्श हैं मुझ में

मेरे अंदर ये कौन चलता है

नक़्श है कौन आसमानों में

इन ज़मीनों में किस का चेहरा है

मैं ने बंजर दिनों में खोली है आँख

मैं ने पेड़ों को मरते देखा है

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