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क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ

क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ

ज़ख़्म जैसा चमक रहा था कुछ

यूँ तो वो लोग मुझ ही जैसे थे

इन की आँखों में और ही था कुछ

था सर-ए-जिस्म इक चराग़ाँ सा

रौशनी में नज़र न आया कुछ

हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे

आसमानों में रह गया था कुछ

दूसरों की नज़र से देखेंगे

देखना कुछ था हम ने देखा कुछ

कुछ बदन की ज़बान कहती थी

आँसुओं की ज़बान में था कुछ

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