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मुझ से बे-ज़ारो न यूँ संग से मारो मुझ को - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

मुझ से बे-ज़ारो न यूँ संग से मारो मुझ को

मुझ से बे-ज़ारो न यूँ संग से मारो मुझ को

इस से बेहतर है कि पत्थर ही बना दो मुझ को

क्या वही हूँ मैं अभी जिस की तलब थी तुम को

मुझ को ढूँडो मिरे पहचानने वालो मुझ को

वक़्त तेज़ाब की मानिंद झुलस दे न कहीं

अपने ख़ाकिस्तर-ए-माज़ी में दबा दो मुझ को

मुझ से शामिल हैं कई ख़्वाब-गुज़ीं सन्नाटे

और नज़दीक ज़रा आ के सदा दो मुझ को

फ़ासले कब किसी इंसान को रास आए हैं

तुम जो बिछड़े हो तो किस तरह न ग़म हो मुझ को

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