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मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था

मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था

सुलूक करता था और ग़ाएबाना करता था

अजीब उस की तलब थी अजब था अस्प-ए-सवार

कि मुल्क-ओ-माल की परवा ज़रा न करता था

शिआर-ए-ज़ीस्त हुनर था सो हम न जान सके

जो काम हम नय किया दूसरा न करता था

सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक

हमारे हक़ में कोई फ़ैसला न करता था

फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई

किसी के वास्ते कोई दुआ न करता था

तमाम सूरत-ए-तरतीब इस को आती है

अगरचे ख़ैर को शर से जुदा न करता था

वो क़ल्ब-गाह-ए-तमन्ना में इक चराग़ की लौ

को तेज़ रखता था नज़्र-ए-हवा न करता था

उठा रखा था उसी पर से ए'तिबार तमाम

और इंतिज़ार भी उस का ज़माना करता था

उन्हीं घरों से इबारत है अपनी शाम-ए-जहाँ

चराग़-ए-ताक़ भी अक्सर जला न करता था

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