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ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए

ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए

आइंदा लम्हा अब के भी यूँही गुज़र न जाए

रस्सी लटक रही है गले को न भेंच ले

ख़ंजर चमक रहा है बदन में उतर न जाए

मुँह फ़ाड़ती हैं घर की दराड़ें इधर उधर

इक क़हक़हा कि जैसे फ़ज़ा में बिखर न जाए

क्यूँ उस के साथ ही न रहा जाए चंद रोज़

जो आदमी कि रात में भी अपने घर न जाए

क्या जाने बात क्या है कि रुकता नहीं कोई

कब से पुकारता हूँ कि कोई उधर न जाए

कैसे फिर अपने आप को ज़िंदा कहूँगा मैं

इक और शख़्स मुझ में है शामिल वो मर न जाए

जिस को कि उर्फ़-ए-आम में कहते हैं ज़िंदगी

ये नश्शा अपने वक़्त से पहले उतर न जाए

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