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दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई

दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई

इस ख़राबे में तो आया भी नहीं है कोई

हर सुराग़ अपनी जगह रेत में मादूम हुआ

दूर तक नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं है कोई

अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को

आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई

दूर से एक हयूला सा नज़र आता है

पास से देखो तो मिलता भी नहीं कोई

कितने दिन होते हैं हाथों में क़लम तक न लिया

काग़ज़ों में नज़र आता भी नहीं है कोई

एक ही सत्र लिखी थी कि ये एहसास हुआ

लफ़्ज़ और मा'नी में रिश्ता भी नहीं है कोई

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