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चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे

चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे

उतार दे चाँद उस के दर पर सियाह दिन मेरे घर में रख दे

कहीं कहीं कोई रब्त-ए-मख़्फ़ी इबारत-ए-मुन्तशर में रख दे

गुरेज़ पर हैं निशान सारे तरफ़ भी कोई सफ़र में रख दे

तलब तलब आइना-सिफ़त है ख़राब-ओ-ख़स्ता हैं अक्स सारे

ये नेकियाँ भी हैं सर-बरहना लताफ़त-ए-ख़ैर शर में रख दे

नशात-आवर है ये उदासी का एक उड़ता हुआ सा लम्हा

मबादा ताक़-ए-रजा हो वीराँ शरारा इक चश्म-ए-तर में रख दे

ये सर्फ़-ओ-हासिल-गज़ीदा दुनिया न दिन ही मेरे न मेरी रातें

कहाँ तलक देखता ही जाऊँ समाअतें कुछ नज़र में रख दे

मिरे ख़ुदा मेरे जिस्म-ओ-जाँ के ख़ुदा मिरे हाथ झड़ न जाएँ

दुआ तह-ए-संग-ए-लब गड़ी है असर ज़रा सा असर में रख दे

बदन है या क़िला-ए-हवा है कहीं से आऊँ कहीं से जाऊँ

हज़ारों रख़्ने पड़े हुए हैं उठा के दीवार दर में रख दे

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