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बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे

बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे

वो लोग कैसे थे जो साथ साथ चलते थे

वो कार-गह न रही और न वो सिफ़ाल रही

ख़ुदा के दौर में क्या आदमी निकलते थे

ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी

और इक चराग़ से कितने चराग़ जलते थे

गुज़ारने की वो सूरत क़याम-ए-ख़्वाब में थी

जहाँ से और कई रास्ते निकलते थे

फ़लक पे अपना बसेरा था और हम अक्सर

फ़लक के आख़िरी कोने पे जा निकलते थे

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