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अंधेरा मेरे बातिन में पड़ा था - अतीक़ुल्लाह कविता - Darsaal

अंधेरा मेरे बातिन में पड़ा था

अंधेरा मेरे बातिन में पड़ा था

कोई मुझ को पुकारे जा रहा था

हम अपने आसमानों में कहीं थे

हमारे पीछे कोई आ रहा था

उफ़ुक़ सुनसान होते जा रहे थे

सुकूत-ए-वस्ल का मंज़र भी क्या था

चमक कैसी बदन से फूट निकली

हमारे हाथ में किस का सिरा था

सर-ए-लम्स-ए-बदन जो लज़्ज़तें थीं

ख़ता के बतन में जो कैफ़ सा था

मैं सदियों उस तरफ़ था और वो मुझ को

मिरी मौजूदगी में देखता था

कोई शब ढूँडती थी मुझ को और मैं

तिरी नींदों में जा कर सो गया था

उसी ने ज़ुल्मतें फैला रखी हैं

असास-ए-ख़्वाब पर जिस को रखा था

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