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वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी - आतिफ़ ख़ान कविता - Darsaal

वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी

वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी

सो अब ये देखिए जा के वो दम कहाँ लेगी

मिलेगी जलने से फ़ुर्सत हमें तो सोचेंगे

पनाह राख हमारी कहाँ कहाँ लेगी

ये आग जिस ने जलाए हैं शहरों जंगल सब

कभी बुझेगी तो ये सूरत-ए-ख़िज़ाँ लेगी

ये दिन जो था ये रहा हैं गवाह वा'दों का

ये शब जो है तिरे दा'वों का इम्तिहाँ लेगी

उतर गई है मिरे जिस्म में जो ये वहशत

निकलते वक़्त यही उम्र-ए-जावेदाँ लेगी

ज़रा सी ख़ाक लहू दे के मुतमइन हैं क्यूँ

अभी तो राह-ए-सफ़र रहरवों कि जाँ लेगी

वसीअ' इतनी है उर्यानियत ये जाँ की देख

बदन के ढकने को ये कितने आसमाँ लेगी

बुरीदा सर किए जाएँगे सब जवाँ किरदार

वो चेहरा देखना 'आतिफ़' ये दास्ताँ लेगी

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