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ये तिरी ज़ुल्फ़ का कुंडल तो मुझे मार चला - अतहर शाह ख़ान जैदी कविता - Darsaal

ये तिरी ज़ुल्फ़ का कुंडल तो मुझे मार चला

ये तिरी ज़ुल्फ़ का कुंडल तो मुझे मार चला

जिस पे क़ानून भी लागू हो वो हथियार चला

पेट ही फूल गया इतने ख़मीरे खा कर

तेरी हिकमत न चली और तिरा बीमार चला

बीवियाँ चार हैं और फिर भी हसीनों से शग़फ़

भाई तू बैठ के आराम से घर-बार चला

उजरत-ए-इश्क़ नहीं देता न दे भाड़ में जा

ले तिरे दाम से अब तेरा गिरफ़्तार चला

सनसनी-खेज़ उसे और कोई शय न मिली

मेरी तस्वीर से वो शाम का अख़बार चला

ये भी अच्छा है कि सहरा में बनाया है मकाँ

अब किराए पे यहाँ साया-ए-दीवार चला

इक अदाकार रुका है तो हुआ उतना हुजूम!!

मुड़ के देखा न किसी ने जो क़लमकार चला

छेड़ महबूब से ले डूबेगी कश्ती 'जैदी'

आँख से देख उसे हाथ से पतवार चला

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