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सफ़र भी जब्र है नाचार करना पड़ता है - अतहर नासिक कविता - Darsaal

सफ़र भी जब्र है नाचार करना पड़ता है

सफ़र भी जब्र है नाचार करना पड़ता है

अदू को क़ाफ़िला-सालार करना पड़ता है

गले में डालनी पड़ती हैं धज्जियाँ अपनी

और अपनी धूल को दस्तार करना पड़ता है

बनाना पड़ता है सोचों में इक महल और फिर

ख़ुद अपने हाथ से मिस्मार करना पड़ता है

न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए

ख़ुद अपनी ज़ात से इंकार करना पड़ता है

कोई भी मसअला फिर मसअला नहीं रहता

ज़रा ज़मीर को बेदार करना पड़ता है

बनाना पड़ता है अपने बदन को छत अपनी

और अपने साए को दीवार करना पड़ता है

हमारी गर्दनें मशरूत हैं सो इन के लिए

सरों को ख़म सर-ए-दरबार करना पड़ता है

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