वो दौर क़रीब आ रहा है
जब दाद-ए-हुनर न मिल सकेगी
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बे-नियाज़ाना हर इक राह से गुज़रा भी करो
इक शक्ल हमें फिर भाई है इक सूरत दिल में समाई है
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया
क्या वक़्त पड़ा है तिरे आशुफ़्ता-सरों पर
फिर कोई नया ज़ख़्म नया दर्द अता हो
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
ऐ मुझ को फ़रेब देने वाले
लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ