लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ
मैं अपने वजूद की सज़ा हूँ
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तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है
क्या वक़्त पड़ा है तिरे आशुफ़्ता-सरों पर
रौनक़-ए-बेश-ओ-कम किस के होने से है
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
दम-ब-दम बढ़ रही है ये कैसी सदा शहर वालो सुनो
न मंज़िल हूँ न मंज़िल-आश्ना हूँ
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
इतने दिन के बाद तू आया है आज
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया