कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ ही क़र्ज़ बराबर मेरा
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वो दौर क़रीब आ रहा है
हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है
लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ
ऐ मुझ को फ़रेब देने वाले
न शाम है न सवेरा अजब दयार में हूँ
इतने दिन के बाद तू आया है आज
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
मिस्ल-ए-बाद-ए-सबा तेरे कूचे में ऐ जान-ए-जाँ आए हैं
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं