जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
अक्सर याद न आया वो
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साया मेरा साया वो
क्या वक़्त पड़ा है तिरे आशुफ़्ता-सरों पर
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
फिर कोई नया ज़ख़्म नया दर्द अता हो
वो दौर क़रीब आ रहा है
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
बहुत छोटे हैं मुझ से मेरे दुश्मन
लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ
बे-नियाज़ाना हर इक राह से गुज़रा भी करो
हम भी बदल गए तिरी तर्ज़-ए-अदा के साथ साथ
दम-ब-दम बढ़ रही है ये कैसी सदा शहर वालो सुनो
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है