इतने दिन के बाद तू आया है आज
सोचता हूँ किस तरह तुझ से मिलूँ
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इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
बे-नियाज़ाना हर इक राह से गुज़रा भी करो
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
क्या वक़्त पड़ा है तिरे आशुफ़्ता-सरों पर
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए