दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
और उस के लिए जो कभी आया न गया हो
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कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
मिस्ल-ए-बाद-ए-सबा तेरे कूचे में ऐ जान-ए-जाँ आए हैं
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
हम भी बदल गए तिरी तर्ज़-ए-अदा के साथ साथ
वो दौर क़रीब आ रहा है
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
इक शक्ल हमें फिर भाई है इक सूरत दिल में समाई है
फिर कोई नया ज़ख़्म नया दर्द अता हो
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे