बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा
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कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ
वो दौर क़रीब आ रहा है
वो इश्क़ जो हम से रूठ गया अब उस का हाल बताएँ क्या
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर