ऐ मुझ को फ़रेब देने वाले
मैं तुझ पे यक़ीन कर चुका हूँ
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ये धूप तो हर रुख़ से परेशाँ करेगी
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
न शाम है न सवेरा अजब दयार में हूँ
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
किसी ना-ख़्वांदा बूढ़े की तरह ख़त उस का पढ़ता हूँ
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया
इक शक्ल हमें फिर भाई है इक सूरत दिल में समाई है
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है
तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था
मिस्ल-ए-बाद-ए-सबा तेरे कूचे में ऐ जान-ए-जाँ आए हैं