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तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था - अतहर नफ़ीस कविता - Darsaal

तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था

तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था

मेरे सीने में कभी इक इज़्तिराब ऐसा भी था

जिस तरह दिल आश्ना था शहर के आदाब से

कुछ उसी अंदाज़ से शाइस्ता-ए-सहरा भी था

ज़िंदगी तन्हा न थी ऐ इश्क़ तेरी राह में

धूप थी सहरा था और इक मेहरबाँ साया भी था

इश्क़ के सहरा-नशीनों से मुलाक़ातें भी थीं

हुस्न के शहर-ए-निगाराँ में बहुत चर्चा भी था

हिज्र के शब-ज़िंदा-दारों से शनासाई भी थी

वस्ल की लज़्ज़त में गुम लोगों से इक नाता भी था

हर फ़सुर्दा आँख से मानूस थी अपनी नज़र

दुख भरे सीनों से हम-रिश्ता मिरा सीना भी था

थक भी जाते थे अगर सहरा-नवर्दी से तो क्या

मुत्तसिल सहरा के इक वज्द-आफ़रीं दरिया भी था

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