सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
वही कानों में अब तक गूँजता है
ग़नीमत है कि अपने ग़म-ज़दों को
वो हुस्न-ए-ख़ुद-निगर पहचानता है
जिसे खो कर बहुत मग़्मूम हूँ मैं
सुना है उस का ग़म मुझ से सिवा है
कुछ ऐसे ग़म भी हैं जिन से अभी तक
दिल-ए-ग़म-आशना ना-आश्ना है
बहुत छोटे हैं मुझ से मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझ से बड़ा है
मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मिरी हर साँस मेरी इब्तिदा है
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