साया मेरा साया वो
साया मेरा साया वो
मुझ में आन समाया वो
दिन निकल आया आँगन में
रात गए जब आया वो
मेरे लहू की गर्दिश में
चुपके से दर आया वो
मेरी गली में रात गए
लहराता इक साया वो
ग़ुंचा सा मिरे साथ गया
सुब्ह तलक खिल आया वो
मेरी ज़िंदा साँसों में
कैसा आन समाया वो
क़ुर्ब की हल्की बारिश में
क़ौस-ए-क़ुज़ह बन आया वो
मुझ से हुआ बेबाक मगर
फूलों से शरमाया वो
हिज्र के तपते सहरा में
मेरी तरह कुम्हलाया वो
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
अक्सर याद न आया वो
'नासिर' सच्चा शायर था
आज बहुत याद आया वो
कैसे कैसे रूप लिए
शहर-ए-ग़ज़ल में आया वो
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