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क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ - अतहर नफ़ीस कविता - Darsaal

क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ

क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ

क्यूँ मेरे लिए तुम कुढ़ते हो मैं ऐसा कौन अनोखा हूँ

वो लम्हा याद करो जब तुम इस क़ल्ब-सरा में आए थे

उस रोज़ से अपना हाल है ये कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ

कुछ भूली-बिसरी यादों का अलबेला शहर बसाया है

कोई वक़्त मिले तो आ निकलो यहीं मिलता हूँ यहीं रहता हूँ

कुछ और बढ़े इस रस्ते में अन्फ़ास-ए-रिफ़ाक़त की ख़ुश्बू

तुम साथ सही हमराह सही मैं फिर भी तन्हा तन्हा हूँ

मैं ख़ाक-बसर मैं अर्श-नशीं मैं सब कुछ हूँ मैं कुछ भी नहीं

मैं तेरे गुमाँ से पत्थर हूँ मैं तेरे यक़ीं से हीरा हूँ

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