कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ ही क़र्ज़ बराबर मेरा
टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समुंदर मेरा
किसी सहरा में बिछड़ जाएँगे सब यार मिरे
किसी जंगल में भटक जाए गा लश्कर मेरा
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा
कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन
एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंज़र मेरा
आख़िरी ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़ हो शायद बाक़ी
अब जो छलका तो छलक जाए गा साग़र मेरा
(1887) Peoples Rate This