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करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या - अतहर नादिर कविता - Darsaal

करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या

करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या

मरने का ग़म नहीं है तो जीने की आस क्या

जब तुझ को मुझ से दूर ही रहना पसंद है

साए की तरह रहता है फिर आस-पास क्या

तुझ से बिछड़ के हम तो यही सोचते रहे

ये गर्दिश-ए-हयात न आएगी रास क्या

अब तर्क-ए-दोस्ती ही तक़ाज़ा है वक़्त का

तेरा क़यास गर है यही तो क़यास क्या

माना कि तेरा मिलना है मुश्किल बहुत मगर

हर लम्हा टूट जाए अब ऐसी भी आस क्या

इक उम्र हो गई है यही सोचते हुए

अपनी किताब-ए-ज़ीस्त का है इक़्तिबास क्या

'नादिर' कहीं तो सैर को बाहर भी जाइए

हर-दम किसी की याद में रहना उदास क्या

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