मोहब्बत की मंज़िल
ऐसे तो नहीं छेड़ो मेरे जिस्म के तम्बूरे को
जैसे कोई बच्चा शरारत करे
मेरा जिस्म कोई राज़ नहीं है
जिसे दरयाफ़्त करने के लिए
किसी नक़्शे की ज़रूरत हो
ये अलजेब्रा का सवाल नहीं है
जिस का पहले से फ़ार्मूला तय्यार हो
इस साज़ को बजाने के लिए कोई भी तरकीब
दुनिया की किसी भी किताब में दर्ज नहीं
ये साज़ अज़-ख़ुद बजने लगे अगर
तेरे नैन मोहब्बत के दिए बन कर जल उठें
तेरी उँगलियों की पोरें
मेरे जिस्म पर ऐसे सफ़र करती हैं
जैसे कोई मुहिम जो पहाड़ की चोटी पर
फ़तह का परचम लहराना चाहे
बर्फ़ का पहाड़ भी पिघलने लगे अगर
तेरे हाथ मेरे पर बन कर
मुझे मोहब्बत की मंज़िल की तरफ़
उड़ा कर ले जाएँ
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