जिस को चाहा था कब मिला मुझ को

जिस को चाहा था कब मिला मुझ को

ज़िंदगी से है ये गिला मुझ को

दर्द यादें और इक शिकस्ता-दिल

आशिक़ी का है ये सिला मुझ को

और किसी से भी रब्त रखने का

रास आया न सिलसिला मुझ को

अब तो आँखों से जी नहीं भरता

अब के होंटों से ही पिला मुझ को

मेरी क़िस्मत में क़ुर्ब का लम्हा

गर लिखा है तो फिर दिला मुझ को

उस की यादों की चाँदनी हर शब

बख़्श देती है कुछ जिला मुझ को

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