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अन-गिनत अज़ाब हैं रतजगों के दरमियाँ - अतीक़ुर्रहमान सफ़ी कविता - Darsaal

अन-गिनत अज़ाब हैं रतजगों के दरमियाँ

अन-गिनत अज़ाब हैं रतजगों के दरमियाँ

दर्द बे-हिसाब हैं रतजगों के दरमियाँ

बन चुका है दिल सवाल अब किसी के हिज्र में

इस पे ला-जवाब हैं रतजगों के दरमियाँ

अश्क रोक रोक अब शल हुए हैं हौसले

हर समय इ'ताब हैं रतजगों के दरमियाँ

काश वो मिले कहीं तो बताऊँ मैं उसे

किस क़दर सराब हैं रतजगों के दरमियाँ

सौ चराग़ जल बुझे तीरगी न कम हुई

मुस्तक़िल हिजाब हैं रतजगों के दरमियाँ

क्या बताऊँ हाल मैं उस को अपने दर्द का

वहशतों के बाब हैं रतजगों के दरमियाँ

वो जिन्हें ख़बर नहीं क़ल्ब-ए-ना-सुबूर की

चार-सू जनाब हैं रतजगों के दरमियाँ

एक ग़म चला गया दूसरे ने आ लिया

सिलसिले शिताब हैं रतजगों के दरमियाँ

रख-रखाव में सदा रह के आज तक यहाँ

हालतें ख़राब हैं रतजगों के दरमियाँ

ज़िंदगी की दौड़ में पिछली रुत के ख़्वाब सब

अब भी हम-रिकाब हैं रतजगों के दरमियाँ

आज ये खुला 'सफ़ी' जाँ के और ग़म कई

शामिल-ए-निसाब हैं रतजगों के दरमियाँ

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