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हर्फ़ लर्ज़ां हैं कि होंटों पे वो आएँ कैसे? - अतीक़ असर कविता - Darsaal

हर्फ़ लर्ज़ां हैं कि होंटों पे वो आएँ कैसे?

हर्फ़ लर्ज़ां हैं कि होंटों पे वो आएँ कैसे?

राह में आहों के शोले हैं बुझाएँ कैसे?

वज़्अ-दारी के वो पहरे हैं कि ऐ जज़्बा-ए-दिल

संग और आइना इक साथ उठाएँ कैसे?

वो मनाज़िर जो तबीअत को जवाँ रखते हैं

ऐ ख़िज़ाँ अब तिरे हाथों से बचाएँ कैसे?

ख़ुश्क आँखों में उतरने से भला क्या होगा

दिल है सद-पारा भला इस में बिठाएँ कैसे?

डर है दामन न सुलग जाए टपक जाए अगर

अश्क आँखों में तड़पते हैं बहाएँ कैसे?

ऐ 'अतीक़' आप की ये कम-नज़री है वर्ना

इस क़दर जल्वे हैं आँखों में सजाएँ कैसे?

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