ग़म ये नहीं कि ग़म से मुलाक़ात हुई
ग़म ये नहीं कि ग़म से मुलाक़ात हुई
ग़म है कि राह-ए-ग़म में ख़ुराफ़ात हो गई
मैं एहतिमाम-ए-मज्लिस-ए-आदाब में रहा
क्यूँ लोग उठ गए हैं ये क्या बात हो गई
माहौल जब तमाज़त-ए-ख़ुर्शीद में हुआ
रुत जाने क्यूँ बदल गई बरसात हो गई
वो वाक़िआ जो रूह की गहराइयों में था
वो बात अब तो नज़्र-ए-हिकायात हो गई
तन्हा थी मेरी सादा-रवी सू-ए-ज़िंदगी
फिर साथ मेरे गर्दिश-ए-हालात हो गई
मैं फ़र्त-ए-एहतियात से गुज़रा मगर 'अतीक़'
उस पर निगाह अज़-रह-ए-आदात हो गई
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