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जिस्म के घरौंदे में आग शोर करती है - अतीक़ अंज़र कविता - Darsaal

जिस्म के घरौंदे में आग शोर करती है

जिस्म के घरौंदे में आग शोर करती है

दिल में जब मोहब्बत की चाँदनी उतरती है

शाम के धुँदलकों में डूबता है यूँ सूरज

जैसे आरज़ू कोई मेरे दिल में मरती है

दिन में एक मिलती है और दूसरी शब में

धूप जब बिछड़ती है चाँदनी सँवरती है

बाग़बाँ ने रोका या ले गया उसे बादल

बात क्या हुई ख़ुश्बू इतनी देर करती है

ग़म की बंद मुट्ठी में रेत सा मिरा जीवन

जब ज़रा कसी मुट्ठी ज़िंदगी बिखरती है

गाँव के परिंद तुम को क्या पता बिदेसों में

रात हम अकेलों की किस तरह गुज़रती है

दूर मुझ से रहते हैं सारे ग़म ज़माने के

तेरी याद की ख़ुश्बू दिल में जब ठहरती है

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