मैं ने पूछा ये बता मुझ से बिछड़ने का तुझे
कुछ क़लक़ होता है क्या उस ने कहा थोड़ा बहुत
Allama Iqbal
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Javed Akhtar
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Rahat Indori
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(795) Peoples Rate This
नवाज़ता था हमेशा वो ग़म की दौलत से
घर हमारा फूँक कर कल इक पड़ोसी ऐ 'अतीक़'
ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना
जुदाई हद से बढ़ी तो विसाल हो ही गया
अगरचे लाई थी कल रात कुछ नजात हवा
हम तो बिछड़ के रो लेते हैं
होंटों पर इक बार सजा कर अपने होंट
देव परी के क़िस्से सुन कर
'अतीक़' बुझता भी कैसे चराग़-ए-दिल मेरा
चंद लम्हों को सही था साथ में रहना बहुत