'अतीक़' बुझता भी कैसे चराग़-ए-दिल मेरा
लगी थी उस की हिफ़ाज़त में सारी रात हवा
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हम तो बिछड़ के रो लेते हैं
होंटों पर इक बार सजा कर अपने होंट
घर हमारा फूँक कर कल इक पड़ोसी ऐ 'अतीक़'
नवाज़ता था हमेशा वो ग़म की दौलत से
अगरचे लाई थी कल रात कुछ नजात हवा
मैं ने पूछा ये बता मुझ से बिछड़ने का तुझे
चंद लम्हों को सही था साथ में रहना बहुत
देव परी के क़िस्से सुन कर
ज़ब्त की हद से हो के गुज़रना सो जाना
जुदाई हद से बढ़ी तो विसाल हो ही गया