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जुदाई हद से बढ़ी तो विसाल हो ही गया - अतीक़ इलाहाबादी कविता - Darsaal

जुदाई हद से बढ़ी तो विसाल हो ही गया

जुदाई हद से बढ़ी तो विसाल हो ही गया

चलो वो आज मिरा हम-ख़याल हो ही गया

नवाज़ता था हमेशा वो ग़म की दौलत से

और इस ख़ज़ाने से मैं माला माल हो ही गया

मैं आदमी हूँ तो हिम्मत न टूटती कैसे

ग़मों के बोझ से आख़िर निढाल हो ही गया

ये और बात कि वो आदमी न बन पाया

मगर ज़माने की ख़ातिर मिसाल हो ही गया

वो आफ़्ताब कि दिन में उरूज था जिस का

हुई जो शाम तो उस का ज़वाल हो ही गया

मैं कारोबार-ए-जहाँ में उलझ गया इतना

कि ख़ुद से मिलना भी अब तो मुहाल हो ही गया

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