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मैं अपनी ख़ाक को जब आइना बनाता हूँ - अतीक़ अहमद कविता - Darsaal

मैं अपनी ख़ाक को जब आइना बनाता हूँ

मैं अपनी ख़ाक को जब आइना बनाता हूँ

तो इस के वास्ते दिल भी नया बनाता हूँ

हर इक परिंद रहे ता-अबद यहाँ शादाब

इसी लिए मैं शजर भी हरा बनाता हूँ

भटक न जाए कहीं शहर-ए-ग़म में अपना दिल

सो तेरे ख़्वाब को मैं रहनुमा बनाता हूँ

करे न क्यूँ ये तिरे दिल में घर मिरे हमदम

मैं अपने शे'र को दर्द-आश्ना बनाता हूँ

मैं पहले भरता हूँ उस दिल में वहशतें और फिर

सवाद-ए-दश्त को भी हम-नवा बनाता हूँ

वो फ़ाएलात-ओ-मफ़ाईल के नहीं बस में

मैं अपने शे'र में जो ज़ाविया बनाता हूँ

तलाश करती हैं ख़ुद मंज़िलें जिसे 'अहमद'

मैं दश्त-ए-शौक़ में वो रास्ता बनाता हूँ

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