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माना कि सितारे सर-ए-अफ़्लाक बहुत हैं - अताउर्रहमान जमील कविता - Darsaal

माना कि सितारे सर-ए-अफ़्लाक बहुत हैं

माना कि सितारे सर-ए-अफ़्लाक बहुत हैं

हम को भी हमारे ख़स-ओ-ख़ाशाक बहुत हैं

खिलते हैं किधर गुल दिल-ए-सद-चाक बहुत हैं

दामन हैं कहाँ दीदा-ए-नमनाक बहुत हैं

इतना न हँसो साहब-ए-इदराक बहुत हैं

आहिस्ता चलो लोग तह-ए-ख़ाक बहुत हैं

मिटने को तो मिट जाते हैं अरबाब-ए-मोहब्बत

इक्सीर हैं इस राह में कम ख़ाक बहुत हैं

जिस रंग में चाहा तुझे उस रंग में देखा

लम्हे तिरी फ़ुर्क़त के तरब-नाक बहुत हैं

उन को भी 'जमील' अपने मुक़द्दर से गिला है

वो लोग जो सुनते थे कि चालाक बहुत हैं

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