ये किस अज़ाब में उस ने फँसा दिया मुझ को
कि उस का ध्यान कोई काम करने देता नहीं
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दिलों से ख़ौफ़ निकलता नहीं अज़ाबों का
थोड़ी सी इस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए
थोड़ी सी उस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए
आए हैं लोग रात की दहलीज़ फाँद कर
भटक रही है 'अता' ख़ल्क़-ए-बे-अमाँ फिर से
जिस की ख़ातिर मैं भुला बैठा था अपने आप को
वो एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है
वो दश्त-ए-कर्ब-ओ-बला में उतरने देता नहीं
लगता नहीं कि उस से मरासिम बहाल हों