उसे अब भूल जाने का इरादा कर लिया है
भरोसा ग़ालिबन ख़ुद पर ज़ियादा कर लिया है
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आए हैं लोग रात की दहलीज़ फाँद कर
दिलों से ख़ौफ़ निकलता नहीं अज़ाबों का
जिस की ख़ातिर मैं भुला बैठा था अपने आप को
वह एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है
वो एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
मंज़िलें भी ये शिकस्ता-बाल-ओ पर भी देखना
ये किस अज़ाब में उस ने फँसा दिया मुझ को
लगता नहीं कि उस से मरासिम बहाल हों
गुम हुआ जाता है कोई मंज़िलों की गर्द में